उर्दू के खिलाफ यूपी विधानसभा में योगी आदित्यनाथ की नफरत : संविधान की तौहीन और फ़िरक़ावरना सियास।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्दू भाषा के खिलाफ अपनी नफरत का लगातार इज़हार कर रहे हैं। यूपी असेंबली में एक बार फिर उन्होंने उर्दू के खिलाफ अपनी भड़ास निकाली, जो न सिर्फ़ उर्दू बोलने वालों की तौहीन है बल्कि संविधान की रूह के भी खिलाफ़ है।
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ख़ुद एक मठ के पुजारी हैं, लेकिन उन्हें मुल्लाओं से दिक्कत है। मुख्यमंत्री जैसे संविधानिक ओहदे पर बैठे शख़्स का मुसलमानों के लिए “कठमुल्ला” लफ़्ज़ इस्तेमाल करना न सिर्फ़ ग़ैर-संविधानिक है, बल्कि उनकी नफरती फिरक़ावाराना ज़ेहनियत को भी दिखाता है।
इससे भी ज़्यादा ज़्यदा ख़तरनाक बात यह है कि जब असेम्बली में योगी जब कठमुल्ले शब्द का प्रयोग कर रहे थे , तो सदन के विधानसभा अध्यक्ष (स्पीकर) मुस्कुराते रहे, जैसे इसमें कोई ग़लत बात ही न हो। यह सिर्फ़ एक व्यक्ति की नफ़रत नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम में जड़ तक समाई हुई भेदभाव और नफरती सोच को बेनक़ाब करता है। यह सिर्फ सिर्फ़ सियासी रहनुमा तक ही सिमित नहीं, बल्कि जुडीशियरी से जुड़े अफ़राद भी ऐसी ज़ेहनियत रखते हैं। हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव ने भी एक दक्षिणपंथी संगठन के मंच पर जाकर इसी तरह की बात की थी।
हिंदुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा जम्हूरी मुल्क है, लेकिन अगर यहां खुलेआम एक समुदाय को गालियां देकर ज़लील किया जाए, और संविधानिक पद पर बैठे लोग इसे नज़रअंदाज़ करें या इसका हौसला बढ़ाएं, तो यह जम्हूरियत के लिए कलंक है।
यह कोई नई बात नहीं है। यूपी में उर्दू को दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा हासिल है और हिंदी के बाद सबसे ज़्यादा लोग इसी भाषा को बोलते हैं। फिर भी, योगी आदित्यनाथ और उनके समर्थक इसे मुस्लिम मुख़ालिफ़ सियासत के तहत निशाना बना रहे हैं।
यह ग़लतफ़हमी फैलाई जाती है कि उर्दू सिर्फ़ मुसलमानों की ज़बान है, जबकि हक़ीक़त यह है कि हिंदुस्तान के करोड़ों ग़ैर-मुस्लिम भी उर्दू बोलते और पढ़ते हैं। 1857 के ग़दर और आज़ादी की जद्दोजहद से लेकर अदब, सहाफ़त, सिनेमा और अदलिया, मनोरंजन, फ़िल्मी इंडस्ट्री तक, उर्दू की गहरी जड़ें हिंदुस्तानी समाज में मौजूद हैं। यह मुल्क की साझा संस्कृति और गंगा-जमुनी तहज़ीब की अलामत है।
उत्तर प्रदेश ही नहीं, बिहार, झारखंड, दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसी कई रियासतों में उर्दू को दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा हासिल है। इसके बावजूद, सत्ता में बैठे लोग इसके खिलाफ़ योजनाबद्ध तरीक़े से मुहिम चला रहे हैं। अगर कोई आम शहरी सरकारी काम में रुकावट डाले तो उसके खिलाफ़ फौरन क़ानूनी कार्रवाई की जाती है। लेकिन जब कोई मुख्यमंत्री या मंत्री , जो संविधान की क़सम खाकर ओहदा संभालता है, उसी संविधान के तहत संरक्षित भाषा के खिलाफ़ भादभाव और नफरत रखता है, तो यह न सिर्फ़ ग़ैर संविधानिक है बल्कि लोकतंत्र की तौहीन भी है।
योगी आदित्यनाथ की यह नफरत सिर्फ़ उर्दू के खिलाफ़ नहीं है, बल्कि यह मुसलमानों के खिलाफ़ उनकी नफरत की एक कड़ी है। उनकी हुकूमत मुसलमानों के खिलाफ़ लगातार एजेंडा चला रही है—चाहे वो वक़्फ़ जायदादों पर हमला हो, बुलडोज़र नयाय हो, मुस्लिम इबादतगाहों को निशाना बनाना हो, मदरसों और उर्दू स्कूलों को बंद करने की कोशिश हो, या फिर सरकारी नौकरियों और राजनीती में मुसलमानों की भागेदारी कम करना हो। उर्दू के खिलाफ़ यह रवैया उसी एजेंडे का हिस्सा है, जिसके तहत मुस्लिम पहचान को कमज़ोर किया जाए।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर कोई सत्ता में बैठा व्यक्ति खुलेआम संविधान की खिलाफ़वरज़ी करता है, तो क्या उस पर क़ानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? क्या यह मुल्क से ग़द्दारी नहीं कि सरकार की मंज़ूरशुदा ज़बान के खिलाफ़ ख़ुद सरकार ही नफ़रत फैला रही है? बदक़िस्मती से, मुल्क के न्यायिक और लोकतान्त्रिक इदारे इस नाइंसाफ़ी पर ख़ामोश हैं।
अगर आज उर्दू पर हमला हो रहा है, तो कल किसी और ज़बान या भाषा पर होगा। यह सिर्फ़ उर्दू या मुसलमानों का मसला नहीं है, बल्कि हिंदुस्तान की सेक्युलर पहचान को मिटाने की साज़िश है। अवाम को इस फ़िर्क़ावाराना सियासत के खिलाफ़ खड़ा होना होगा और संविधान की हिफ़ाज़त के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी। जब तक लोग ख़ामोश रहेंगे, तब तक ऐसी नफ़रत फैलाने वाली ताक़तें संविधान और मुल्क की साझी विरासत को कुचलती रहेंगी।
धन्यवाद
तनवीर अहमद
सामाजिक कार्यकर्त्ता
9431101871
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